बुधवार, 10 दिसंबर 2014

शीत ऋतु आगमन और शब्दों की कम्पन -----

मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ
             *
अनमन सी उड़ने लगीं हैं हवाएँ
मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ|

भटक गई किरनें
अंधेरों के पथ में
ना बैठा कोई 
सारथी सूर्य रथ में
बिछी है कुहासों की परतें गगन में
चली ढूँढने धूप भी अब दिशाएँ |

जहाँ देखो
कोहरे के पर्वत खड़े हैं
ये मौसम
ना आने की ज़िद्द में अड़े हैं
कराहती रही हर नदी आँख मीचे
बहती रहीं रात भर वेदनाएँ |

न डाली, न कोयल
न पँछी बसेरा
न उत्सव वासंती
न पुरवा का फेरा
चखने लगी हर साँस शीत ठिठुरन
सिमटने लगीं हैं धरा की शिराएँ |

मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ|

शशि पाधा




1 टिप्पणी: